श्रधेय स्वर्गीय भक्तदर्शन जी के सौजन्य से:
“”श्री बद्री महाराज का जीवन वास्तव में आश्चर्यजनक घटनाओं से परिपूर्ण है । वह संभवत एक अकेले भारतीय थे जो कुली पड़ाव से उन्नति करके लेजिस्लेटिव काउंसिल में पहुंचे। त्रिनिडाड के रेवरेंड सी0डी0 लल्ला , जो वहां की लेजिस्लेटिव काउंसिल में वहां के भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते थे, मॉरीशस के माननीय आर गजाधर तथा ब्रिटिश गायना के माननीय ए0 एफ0 श्री राम —- यह सब महानुभाव उन भारतीय मजदूरों के पुत्र हैं जो उपनिवेशों में जाकर बस गए थे । लेकिन श्री बद्री महाराज ने शतबंध कुली प्रथा के अंतर्गत सन 1889 से सन 1894 तक स्वयं कार्य किया था । “”
जिन श्री बद्री महाराज के निधन पर हिंदी के ख्यातनाम पत्रकार श्री बनारसी दास चतुर्वेदी ने यह शब्द लिखे थे ,, उनका जन्म तल्ला नागपुर पट्टी के बमोली गांव में सन 18 68 ईसवी में हुआ था। इनके पिता श्री काशीराम बमोला कर्मकांड ज्योतिष के ज्ञाता थे। बचपन में पिता ने इन्हें कर्मकांड ज्योतिष विद्या सिखाने की कोशिश की , लेकिन सन 1886 में जब ये 18 वर्ष के थे एक दिन अचानक बिना किसी के कहे सुने यह घर से निकल भागे और बनारस में संस्कृत पढ़ने की इच्छा से चल दिए। पल्ले में दो आनों के सिवाय कुछ नहीं था । हां घर के भरे पूरे होने के कारण कानों में सोने की मुर्खियाँ , हाथों में चांदी के कड़े, कमर में चांदी की कंधनी, जेब में सोने के दानों सहित रुद्राक्ष की माला थी। किसी प्रकार श्रीनगर पहुंचे और सोने के दोनों मुर्खियाँ ₹22 में बेच दी ।
वहां दक्षिण भारत के पंडित श्री नारायण भट्ट मिल गए ।बद्रीनाथ यात्रा के लिए गढ़वाल आए हुए थे उनके साथ पहले ही आगरा पहुंचे और फिर किसी प्रकार बनारस पहुंचकर 1 वर्ष तक द्वारिकाधीश की पाठशाला में पढ़ते रहे ।
इतने में अचानक बनारस में भयंकर हैजा फैल गया और सब पाठशालाएं बंद कर दी गई और विद्यार्थियों को कह दिया गया, अपने-अपने घरों को चले जाएं । यह कहां जाते घर से सदा के लिए विदा होकर आए थे।
” जिधर को सींग समाये” की उक्ति के अनुसार यह फिर एक दिशा में चल ही दिए। अभी 10, 12 मील तक ही गए होंगे कि सिंगापुर – पिनांग का ज्योन दामोदर नाम का एक व्यक्ति ने मिल गया । वह एक “अरकाटी” था अर्थात उसका पेशा था भारत से लोगों को बहकाकर उपनिवेशों में भेजना और इस प्रकार खूब रूपए कमाना । उसने इनसे कहा कि तुम मेरे साथ चलो वहां खूब पढ़ना लिखना और पूजा पाठ करके कमाई भी करना। यह भोले भाले उसके स्वरूप को नहीं समझ पाए और उसके साथ हो लिए। जब सिंगापुर पहुंचे तब इन्हें असली भेद का पता लगा । उस अरकाटी ने इनसे 3 साल का एग्रीमेंट (कुली का इकरारनामा) लिखवाना चाहा पर उन्होंने साफ इंकार कर दिया ,और जोरदार शब्दों में कहा कि” मुझे फौरन वापस पहुंचाओ “। सौभाग्य से एक दयालु अंग्रेज ने इन्हें सहायता दी । उस बीच ज्योन दामोदर भी बीमार पड़ गया था, इसलिए सिंगापुर में केवल 3 सप्ताह रह कर ये भारत वापस आ गए और उस और अरकाटी के साथ उसके जिले गोरखपुर में पहुंच गए ।
वहां उन्होंने पुलिस में अपना नाम लिखाया और बकायदा परेड कयावद का काम करने लगे लेकिन रात को पहरा देना इन्हें बिल्कुल पसंद नहीं था। साथ ही रह रह कर संस्कृत पढ़ने के अपने असली उद्देश्य की भी याद आती थी, इसलिए छह-सात महीने बाद ही पुलिस की वर्दी फेंक कर यह काशी को चल दिए। तब तक वहां हैजा जो शांत हो चुका था और संस्कृत पढ़ने का इनका पक्का विचार था । लेकिन वह पाठशाला बंद हो चुकी थी इसलिए निराश होकर यह बनारस जिले के गांव में घूमने लगे और लगातार 7 दिन तक घूमते रहे ।
सौभाग्य कहिए या दुर्भाग्य इस बार भी उन्हें द्वारका नाम का एक और अरकाटी मिल गया। उसने इनसे पूछा कि नौकरी करोगे? इन्होंने अपनी दुर्दशा का वर्णन किया और नौकरी में सहमति प्रकट की। उसने खूब दिखावटी सहानुभूति प्रकट की और कहा कि मेरे साथ चलो रोज जगन्नाथ जी के दर्शन करना, कथा वार्ता करना पूजा पाठ करके अपनी आर्थिक समस्या को भी हल करना। उस स्थान को कोई फिजी कहते हैं और कोई जगन्नाथपुरी कहते हैं अगर तुमसे पूछे तो तुम कहना कि तुम फिजी जा रहे हो ।
उसकी शब्दावली पर इन भोले-भाले युवक को कुछ भी संदेह नहीं हुआ इन्होंने फिजी का नाम पहले कभी नहीं सुना था। सोचने लगे कि संभवता जगन्नाथपुरी को ही अंग्रेजी में फिजी कहते हैं ।अतः यह उसके साथ चल दिए ।
बनारस से यह कोलकाता आए और वहां जहाज पर चढ़े । उस जहाज पर इन्हीं की तरह बहला-फुसलाकर लाए हुए लगभग 8 – – 9 सौ लोग ठूंसे हुए थे। अच्छी तरह लेटने की भी जगह नहीं थी ।खाने पीने को तो बहुत ही कष्ट था। किसी प्रकार राम-राम करके पूरे 3 महीनों बाद फिजी पहुंचे और सब लोग अलग-अलग यूरोपियन कोठी वालों में बांट दिए गए।
स्त्री की कीमत थे ₹40 और पुरुष की 20 से लेकर 25 तक। यह कुल 25 व्यक्ति राकी राकी स्थान की पेनांग शुगर रिफाइनरी कंपनी में नियुक्त किए गए। एक गढ़वाली 18 नेपाली और 6 भारत के अन्य स्थानों के लोग।
इस प्रकार सन 1889 ईस्वी में जबकि यह 21 वर्ष की उम्र के थे उन्होंने अपने निजी प्रवास को प्रारंभ किया।। क्रमशः