मौसमी चिंतन – 10 दिसम्बर 2017 को द्वारा स्वर्गीय एल मोहन कोठियाल:::::::
कई बिटिश अधिकारियों ने अपने कार्यकाल के दौरान अपने अनुभवों व संस्मरणों को लिपिबद्ध किया है। उनमें लिखने-पढ़ने की ललक ज्यादा ही होती थी। यह उन्हीं की सोच का परिणाम था कि उनके ही काल में देश के अलग अलग राज्यों में गजेटयर लिखे गये। आज यही हमारे इतिहास के सबसे प्रमुख दस्तावेज है। इनमें हमारे इतिहास भूगोल को सटीक विवरण मिलता है।
लेकिन आजादी के बाद उत्तराखण्ड में राज्य में रहे प्रशासनिक अधिकारियों में बीडी सनवाल एवं डाॅ आर.एस. टोलिया कुछ अपवाद रहे जिनकी रुचि क्षेत्रीय इतिहास संस्कृति में रही।
टोलिया जी ने यहां के इतिहास एवं बिटिश अधिकारियों के लिखित रिकार्ड का अध्ययन कर कुछ पुस्तकें लिखीं। आज की बात करें तो कई प्रशासनिक अधिकारियों को यही पता न होगा कि शिवप्रसाद डबराल कौन थे?
गढ़वाल के जिलाधिकारियों में फिलिप मेसन दो बार (1920-22 & 1936-39) गढ़वाल के जिलाधिकारी रहे, जो बाद में भारत सरकार के रक्षा सचिव भी बने। उन्होंनें कई पुस्तकें लिखी इनमें से एक पुस्तक शैफ्ट आफ सनलाइट थी। जिसमें उन्होंने अपने कार्यकाल के संस्मरणों को कलमबद्ध किया गया है। यह पुस्तक नहीं मिल पा रही थी इसलिये इसके लिये मैने 1998 में आजादी से पहले गढ़वाल के अन्तिम जिलाधिकारी बर्नेडी को इंगलैण्ड में पत्र भेजा था और उनसे संस्मरण एवं इस पुस्तक के पौड़ी से सम्बन्धित पन्ने उपलब्ध कराने का आगेह किया था किन्तु विदित हुआ कि उस बीच में उनका निधन हो चुका है। लेकिन इस पुस्तक के लिये हम लगे रहे और यह मिल ही गई। इसके लिये हम पौड़ी निवासिनी आदरणीया डोरीन चैफीन चैधरी जी के आभारी हैं जिन्होंने इस पुस्तक के उन पन्नों को हमको उपलब्ध कराया। इन संस्मरणों में पी.मेसन ने गढ़वाल जिले के अपने कार्यकाल पर प्रकाश डाला है।
पी.मेसन लिखते हैं कि ‘‘केन्द्र में सचिव पद पर मेरे तीन साल का कार्यकाल समाप्त होने को था इसलिये मुझसे पूछा गया कि क्या मै इस पद पर और एक साल के लिये रहना चाहूंगा? मैंने कहा कि उ.प्र. में किसी जिले की जिम्मेवारी सम्हालना चाहूंगा। मैने मुख्य सचिव को पत्र भेजा कि मेरी पहली रूचि गढ़वाल का जिलाधिकारी बनने की है। मुख्य सचिव का रुखा सा जबाब मिला कि आपने जिन तीन जिलों की जिम्मेवारी लेने की बात की है, दुर्भाग्य से वहां पर पहले से ही अधिकारी है, इसलिये मैं विकल्प के रूप में दिये गये तीन ऐसे जिलों का कार्यभार ले सकता हूं जहां कम ही लोग जाना पसंद करते है।
मैने अवध को चुना जो लखनऊ के पश्चिम में था। मैं यहां जाने के प्रति मन बना चुका था और उत्साहित था। उसका गजट में भी उल्लेख हो चुका था।
लेकिन अन्तिम समय पर मुझे एक टेलीग्राम मिला- गढ़वाल।
भारत में सबसे बेहतर सेवा। 30 साल की आयु में गढ़वाल सबसे बेहतर सेवा करने के लिये क्यो अच्छा था इसके पीछे कई कारण थे।
जिले की एक किमी की सीमा में कोटद्वार तक रेल आ चुकी थी, जहां से 20 मील की मोटर सड़क चलने पर 6 हजार फीट की ऊचाई पर लैसडौन था, जो रायल गढ़वाल का मुख्यालय था। यहां पर तब दो बटालियनें रहती थीं। 2/3 क्वीन एलेकजेन्ड्रा की गोरखा। यहां से आगे का रास्ता पैदल था, जिस पर एक गांव से दूसरे गांव तक घोड़े चला करते थे। कुछ जगह ऐसा भी नही ंथा। एक पैदल यात्री के लिये अपना बिस्तर कुछ खाने की सामग्री और बरतन आदि। समान्य व्यक्ति एक दिन में 10 से 12 मील चल पाता था। हालांकि घोड़े खच्चर वाले एवं कुली दुगनी दूरी तय करते थे। अश्व पथ पर कुछ दूरी पर बंगले थे ताकि जब एक पड़ाव खत्म हो तो वहां पर रात्रि विश्राम हो सके। इनमें दो कमरों के अलावा बरामदा व सर्वेन्ट क्वाटर्स होते थे।
3 महीने की बरसात में खड़े रास्ते काफी प्रभावित होते थे जिनकी फिर दुरस्त करना होता था। क्षेत्र भमण के लिये आपको टेन्ट का प्रयोग करना होता था और मेरे लिये तो यह बहुत जरुरी था। एक जिलाधिकारी का आधा कार्यकाल तो यात्रा में ही बीतता था। चुंकि मेरे कार्यकाल में प्रत्येक गांव में उपज के नक्शे बन रहे थे इसलिये 9 महीने यात्रा में ही बीत रहे थे। पहाड़ों में चलना मुझे ओर मैरी को बेहद पंसद था।’’ लेकिन इससे भी और कुछ बातें हैं जिनको पौड़ी पर लिखी जाने वाली पुस्तक सफरनामा में दिया जा रहा है।
पर मन में एक बात आती है कि अंग्रेजों ने पहाड़ों आबाद किया। यहां के भूलेख को बार बार वहीं जाकर दुरस्त किया। लेकिन हमारे भारतीय अधिकारी क्यों इतने निकम्मे निकले कि इस दिशा में कुछ नहीं कर सके। पता नहीे क्यों वे भी यहां से भागने को ही एक मात्र विकल्प मान चुके हंै। ऐसी ही बीमारी से राज्य के नेता भी ग्रस्त हैं जो सुबह पहाड़ में जाकर जाकर शाम को हेलीकाप्टर चले आते हैं। एक समय लखनऊ दिल्ली से नेता यहां कर से भी आते थे रात में रहते भी थे। पर देहरादून से न अधिकारी यहां आने को तैयार है औश्र न नेता ही। ज्यादतर विधायक कुर्सी पाते ही देहरादून में घर बना देता है और तब वहां से आता है। 17 साल में कोई भी सरकार एक गांव तक आबाद नहीं कर सकी है तो उत्तराखण्ड को कैसे आबाद कर सकेगी। एक माडल तो बनाते। राज्य में भूमि रिकार्ड बहुत बुरी दशा में है उसको ही सुधार लो तो मान जायेंगे कि कुछ इच्छा है। पर सब जगह एडहौकिज्म जैसा माहौल है। पहाड़ आज सिसक रहा है। इसके मुकाबले दूसरे राज्य ऐसे नहीं हैं।
दो दिन तुम गैरसैण नहीं टिक सके और न कुछ बोल ही सके और बातें बड़ी-बड़ी करते हों। आज सारी सुविधा व पैसा होने पर तुम्हारे यह हाल हंै लेकिन अंगे्रजों ने किस हालत में काम किया और फिर भी यहां की सेवा को बेहतर बताया।
गैरसैण्ंा क्यों अनुपयुक्त है। शिमला, शिलांग भी राजधानियां ही हैं जो अंगेजो के द्वारा बसाई गई। हमारे नेता सिक्किम की राजधानी गंगटोक से भी सीख ले सकते हैं। कोई प्लान तो हो। यदि तुम्हारे बस का नही तो अंगे्रजों को बुलाकर उसने ही प्लान करवा लो। दार्जलिंग से लेकर ऊटी धर्मशाला सभी तो ऐसे ही पहाड़ थे। चाहे तो हमारे नेता सिक्किम की राजधानी गंगटोक से भी सीख ले सकते हैं। बहरहाल सर्द का मौसम है लेकिन ठण्ड उतनी नहीं है जितने कि इससे पहले साल थी। हिमालय भी खाली खाली है। आने वाले समय में बारिश नहीं हुई तो गर्मियों में नदियों में पानी की कमी होने लगेगी। जंगलों में जल्द ही आग लगने लगेगी। शीतकालीन फसलों की बुआई नही हो सकी है। चिंता की बात है।
संशोधन
पुनश्च- कल से अगले चार दिन तक बारिश व बदली का दौर है 12 दिसम्बर के बाद सर्दी गति पकडे़गी और मैदान में कुहासे के दौर के आरम्भ होने की उम्मीद।