मेरी बिजनेस फ्रेंड इकरा!
स्वर्गीय कमल जोशी Kamal Joshi जी द्वारा उनकी पुण्य तिथि पर उनके द्वारा लिखित एक कहानी
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ये कहानी मेरी दोस्त इकरा की है। इकरा को पहले—पहल जब देखा तो वो हमारे मोहल्ले के बाजार में कागज के लिफाफे बेच रही थी, अपने भाई अयान के साथ। अल्ल सुबह जब हमारे मोहल्ले में सब्जी और फल की ठेली लगाने वाले आते हैं, दिन भर के लिए उन्हें लिफाफों की जरूरत होती है। उन्हीं रेहड़ी वालों को इकरा लिफाफे बेचती है।
इकरा की उम्र 6 या 7 साल की होगी। अयान उसका उससे छोटा भाई है। सुबह उठते ही इन बच्चों को स्कूल में होना चाहिए, अपनी स्कूल की ड्रेस ठीक करते या बस्ते में कॉफी—किताब डालते। पर ये बच्चे रोज यहाँ लिफाफे बेचने आते हैं। ये भी कोई सरल काम नहीं। इन्हीं की तरह लगभग 20—25 बच्चे इसी काम के लिए यहाँ आते हैं। लिफाफे बेचने के लिए आपस में लड़ भी जाते हैं। हमारे देश में बाल अधिकार कानून भी है और शिक्षा का अधिकार भी। पर इन बच्चों को यहाँ सवेरे सवेरे लिफाफे बेचने के लिए झगड़ते देखना हमारे तंत्र का असली रूप है। इन बच्चों के माँ—बाप भी अपने बच्चों से उतना ही प्यार करते हैं जितना हमारे माँ बाप ने हमसे किया। या हम अपने परिवार के बच्चों से करते हैं। अपने बच्चों के दुःख से इन बच्चों के माँ—बाप भी उतना ही दुःखी होते हैं जितने हम। वो भी अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सोचते ही होंगे। पर उसके बावजूद इनकी माँ रातभर लिफाफा बनाने के बाद, इनको लिफाफे बेचने के लिए भेज देती हैं। अगर वे लाड में आकर या अपने बच्चे के कष्ट को देख कर ऐसा न करें तो इसी लाडले या लाडली के लिए शाम के खाने के लाले पड़ जाएँ। गरीबी बहुत बड़ी मजबूरी होती है।
ऐसा नहीं कि हमारे जागरूक’ अधिकारी इस तथ्य से परिचित न हों। वे गाहे—बगाहे मियादी बुखार की तरह प्रकट होते हैं, होटलों में बर्तन मांजते बच्चों को छुड़ा कर ले जाते हैं। होटल मालिक पर श्रम निरोध कानून के अंतर्गत जुर्माना कर देते है। अखबारों में प्रेस नोट बनाकर दे देते हैं और फिर कुछ दिनों के लिए सो जाते हैं या आँख मूँद लेते हैं। कोई खोज—खबर नहीं होती कि बच्चे कहाँ गए? उनके माँ—बाप ने बर्तन मांजने या लिफाफा बेचने के लिए क्यों भेजा? क्या मजबूरी थी? या छुड़ा’ लिए जाने के बाद बच्चे का क्या हुआ, कहीं वो घर से और दूर तो बर्तन मांजने के लिए नहीं भेज दिया गया? ये हमारे राजनैतिक तंत्र का चरित्र है कि समस्या की गंभीरता पर ना जाकर सिर्फ दिखावे और तात्कालिक वाहवाही तक सीमित रहता है। राजनैतिक लोगों की इस कमजोरी का फायदा हमारे नौकरशाह
उठाते हैं।
खैर कहानी तो मुझे अपनी बिजनेस फ्रेंड इकरा की सुनानी है।
इकरा को मैं अक्सर लिफाफे बेचता देखता था। वो चार—पाँच महीने पहले से ही लिफाफे बेचने के बिजनेस’ में आई थी। वो और उसका भाई सुबह सात बजे आकर दुकानों में लिफाफे देते हैं। लिफाफे बेचने वालों का यह तरीका होता है कि वे सुबह लिफाफे रेहड़ी वालों और दुकानदारों को दे आते हैं, और शाम को पैसे ले जाते हैं। इसके बाद कभी इकरा और उसका भाई बीच में सड़क में खेलने लगते। कोई सब्जी वाला गाजर दे दे तो उनकी गाजर बांटने को लेकर लड़ाई हो जाती पर फिर बाँट कर खा लेते हैं। एक शाम को इकरा रो रही थी। मैंने जब अपने ऑफिस की खिड़की से एक सब्जी बेचने वाले को पूछा कि ये लड़की क्यों रो रही है तो उसने बताया कि एक दुकानदार, जिसे वह सुबह लिफाफे दे कर गयी थी, अब शाम को उसके लिफाफे के पैसे नहीं दे रहा है। सुबह बोनी के समय कोई दुकानदार पैसे नहीं देता इसलिए शाम को आकर लिफाफों के पैसे लिए जाते हैं।
मैं नीचे उतरा। इस छोटी लड़की के पास गया उसका नाम पूछा तो उसने बताया उसका नाम इकरा है। इकरा याने कुरआन सीखने का पहला अक्षर। मैं उससे बोला चलो मेरे साथ, और बताओ कि किस दुकानदार ने लिफाफे के पैसे नहीं दिये हैं? वो मुझे लेकर उसके पास गयी। आजकल कुछ पत्रकार दरोगा से कम रुतबा नहीं रखते! यघपि मुझे सर्वोदयी मार्का लंडेरू पत्रकार ही माना जाता है पर मुझे इस छोटी लड़की के साथ आता देख उस सब्जीवाले ने मेरे पूछने से पहले ही इस छोटी लड़की की और पैसे बढ़ा दिए। इकरा ने उस दुकानदार को मोटी सी गाली दी (जो सम्भवतः उसने अपने बाप से सीखी होगी) और बोलीः पैल्ले क्यों ना दिए थे’। मैंने उस दुकानदार को ताकीद दी कि इसके पैसे रोज दे दिया करें। अब मैं इकरा का हाथ पकड़ कर घर ले आया। उससे उसका मुँह धुलवाया जो आसुंओं से बहे काजल से पुता था। उसे एक बिस्कुट दिया। ये इकरा से पहली मुलाकात थी।
अगले दिन सुबह ही इकरा मेरे घर धमक गयी। पूछा तो बताया कि वो जिसने कल पैसे देने में आनाकानी की थी आज उससे लिफाफे नहीं ले रहा है। ये स्वाभाविक ही था। पर इकरा चाहती थी की उसका कोई भी क्लाईंट कम ना हो। चलो मेरे साथ’ उसने जोर दिया। मैंने कहा मैं काम कर रहा हूँ बाद में आउंगा। उसने सॉलिड तर्क दे डाला—तब तक तो वो दूसरे से लिफाफे ले लेगा’। जब तक मैं की निर्णय ले पाता, उसने धमकी भरे अंदाज में मेरी और देखा और धमकायाः चल्लिये की नी चल्लिये?’ उसकी तनी भृकुटी देख कर मैं डर गया। जाना पड़ा। इस बार मैं दीनहीन बन कर उस दुकानदार के पास गया और बोलाः भाई एक आध लिफाफे की गड्डी तो इकरा से ले ही ले। ये मेरी जान खा रही है।’
इस बार उस दुकानदार ने हंसते हुए इकरा से कुछ गड़ियाँ ले ली और इकरा से कहा कि अब बाबूजी को लाने की जरूरत नहीं! मैं रोज गड़ियाँ ले लूंगा। अब तो मोहल्ले में इकरा का रूतबा हो गया। प्यारी तो सबको लगती ही थी वो। सब ही दुकानदार उससे एक आध गड़ी लेने लगे। इकरा का बिजनेस’ बढ़ गया।
खासी सर्दी में भी इकरा एक पतला कुर्ता पहने लिफाफे बेचती है। इकरा के बारे में पता करने पर पता चला कि उसकी माँ और बड़ी बहन घर में लिफाफे बनाती हैं और इकरा और उसका भाई अयान उन्हें बेचते हैं। जब मैंने मालूम करने की कोशिश की कि क्या उसका बाप नहीं है तो बताया गया कि ना के बराबर है!’ मैं समझा नहीं। फिर खुलासा किया गया कि उसके बाप का बर्तनों का व्यपारी है। पहाड़ में जाता है, वहाँ पुराने बर्तन खरीदता है— और नए बर्तन बेचता है। पर शराब की बहुत बुरी लत है। दोस्तों के साथ सारी कमाई उड़ा देता है। घर में पैसे देने तो दूर घर वाली से भी लिफाफों की कमाई के पैसे छीन कर ले जाता है। बाप के रौद्र रूप को देख कर बच्चे सहमें रहते हैं। अब मैं समझ पाया की इतनी छोटी इकरा मुस्कराती क्यों नहीं। बाप पैसे तो लूटता ही है, इकरा के होंठों से उसकी मुस्कराहट भी छीन चुका है।
इकरा से मैंने पूछा की क्या वो स्कूल भी जाती है? इकरा और उसके भाई अयान ने जोर से मुंडी हिलाई और कहा हाँ!’
क्या करते हो स्कूल में’ मैंने जानना चाहा।
इकरा बोली 9 बजे स्कूल जाना पड़े है। खाना मिले है वहाँ।’
फिर क्या करते हो’ मैं जानना चाहता था कि स्कूल में बच्चों के साथ क्या पढ़ती है, क्या खेलती है— क्या मस्ती करती है।
मेरी बड़ी भिन्ना आ जा है मुझे लिवाने स्कूल में’ उसने कहा। पता चला कि इन दोनों भाई—बहन को बड़ी बहन के साथ मुहल्लों का चक्कर लगाना पड़ता है। बड़ी बहन घरों से अखबार खरीदती है। इकरा और अयान उन्हें ढोकर घर माँ के पास लाते हैं जिससे वो अगले दिन के लिए लिफाफे बना सके। अब मेरे अखबार भी इकरा के घर जाने लगे। प फ्री में नहीं। इकरा की बड़ी बहन उनका पैसा चुकाती है। ये बात अलग है कि मैं एक दो किलो ऐसे ही दे देता हूँ। अखबार के मिले पैसों से मैं इकरा के लिए एक स्वेटर, बालों का क्लिप और भाई के लिए जूते खरीद चुका हूँ। हम अखबार की बिक्री के पैसे से कभी—कभी आलू की टिकिया और गोलगप्पे मिल कर खाते हैं। मैं उन्हें अखबार इस ल फ्री नहीं देता कि उनको इस दुनिया में संघर्ष कर ही जीना है। उन्हें पता होना चाहिए हर चीज की कीमत होती है। उन्हें न तो दया का पात्र बनना चाहिए और ना ही ज्यादा दया की अपेक्षा करनी चाहिए। जिस दुनिया में, जिन परिस्थितियों में उन्हें जीना है उसका आदी होना जरूरी है उन्हें।
एक दिन वो फिर आ गयी। इस बार किसी ने उसे फटा हुआ नोट धोखे में दे दिया था। वो बहुत गुस्सा थी। इतनी गुस्सा कि बस रो ही देती। मुझे अब मोहल्ले में घूम कर उसका फटा हुआ नोट बदलवाना पड़ा। सही नोट पाकर वो बोली मुझे छोटी लोंडी समझ के ये फटा नोट दे देवे हैं। कल से तुम चलियो मेरे साथ जब ये पैसे देवें’ मैंने उसकी बात अनसुनी कर दी।
पर इकरा कहाँ मानने वाली। अगले ही दिन जब मैं घर पर था तो, वो शाम को मेरे पास आ गयी। मुझे साथ वसूली में चलने के लिए कहने। मैंने मना कर दिया तो बोलीः देख लो, मुझे कोई पैसे ना देवेगा या फटा नोट देवेगा तो तुमे जाना ही पड़ेगा। इसलिए मैं नू कै री की अभी चल्लो।’ उसने जबरन मेरा हाथ पकड़ लिया। मुझे उसके साथ वसूली के लिए जाना ही पड़ा। अब ये रोज का क्रम हो गया है। दुकानदार मुझे देख कर हंसते हैं। एक तो बोल ही पडाः भाईसाहब अगर बच्चों के लफड़े में पड़ना ही था तो शादी ही कर लेते’ मेरे पास खिस्याई हंसी के अलावा कोई जवाब नहीं होता है।
हंसने वाले दुकानदार मेरी मजबूरी नहीं समझते। इकरा के साथ जाने का भी एक कारण है। लफड़ा ये है कि इकरा कड़क बिजनेस वुमन है। जब मैं उसके साथ वसूली’ पर नहीं जाता तो वो सारे पैसे मेरे पास आकर गिनवाती है। अगर पैसे उसके अनुमान के बराबर या ज्यादा हुए तो कोई बात नहीं। पर अगर उसके अनुमान से कम हुए तो वो कम से कम चार बार गिनवाती है। फिर भी कम ही निकले तो वो साफ—साफ कहती है अपने हाथ दिखाओ।’ उसे लगता है कहीं मैंने कुछ पैसे छिपा तो नहीं लिए। जब उसे हाथ में छिपे पैसे नहीं मिलते तो वो मेरे जेबों की तलाशी लेने लगती है। उसे ये लगता है कि कहीं मेरी नियत खराब तो नहीं हो गयी और मैंने कुछ पैसे अपनी जेब में तो नहीं डाल दिए। बिजनस में यही सब होता है। अब आप ही बताएँ कि इतने कड़क बिजेनेस पार्टनर से कैसे निपटा जाये! इस अपमानजनक स्थिति से बचने का बस एक ही तरीका है। वसूली में उसके साथ ही जाओ और जोड़कर उसे बताते जाओ कि कितने पैसे हुए हैं। तब ही जान छूटती है।
ऐसा नहीं कि वो मेरा खयाल नहीं करती। इस बार 26 जनवरी को वो अपना खाया हुआ आधा लड्डू मेरे लिए लायी थी और कहा खाओ। मैंने देख लिया था कि उसके हाथ गंदे हैं, हाथों का मैल भी लड्डू पर लग गया है। मैंने आनाकानी की पर उसने मुझे वो लड्डू जबरदस्ती खिला दिया। मुझे बाद में लड्डू के स्वाद से पता चला कि लड्डू में इकरा के हाथ के पसीने का खारापन भी है। पर वो नन्हीं गुड़िया की मेहनत और प्यार का स्वाद था। अच्छा ही लगा!