शंकराचार्यों की धर्म संवत बातें अपने अनुकूल न होती दिखाई देने की वजह से अब तथाकथित लोगों को शंकराचार्य भी खटकने लगे हैं, क्योंकि शंकराचार्य उनके मनमाफिक वंदना करने में असमर्थ हैं।
ऐसे में ऐसे तथाकथित शंकराचार्य परंपरा को सनातन और शास्त्र विधान में नहीं बता रहे हैं। यानी शंकराचार्य पद्धति को पूर्णतः खारिज कर रहे हैं। जो शंकराचार्य और निर्मोही अखाड़ा राम मंदिर विवाद के वादी रहे उन्हें ही बाहरी बताने की कोशिश की जा रही है। अब तक राम पूरे देश के थे। अब रामानंद संप्रदाय के बताए जा रहे हैं। मगर जो इसे रामानंद संप्रदाय का बता रहे हैं , उनमें से कौन है जो रामानंद संप्रदाय का है? रामानंद संप्रदाय के निर्मोही अखाड़े को तो तथाकथितों ने बाहर कर दिया है। क्या यह षड्यंत्र संदेश योगी सहित तमाम उन धर्मगुरुओं को देने की कोशिश की जा रही है कि हिंदुओं के नाम की राजनीति में जो उनके मनमुताबिक व्यवहार , आचार दर्शन नहीं करेगा, उसके लिए वो द्वार खोले जायेंगे कि उसे धर्म शास्त्र की बात करना तो दूर, हिंदू होना भी साबित करने जैसा पड़ेगा। और उसकी पहली कड़ी में चारों शंकराचार्यों समेत तमाम ऐसे धर्मगुरु आ गए हैं , जो अपने अपने विधि विधान धर्म शास्त्र के आगे किसी सत्ता धर्म की मीमांसा , पिपांसा को अनुकूल करने का काम नहीं करते।
कुछ तथाकथित अब चारों धामों के शंकराचार्यों को सनातनी नहीं बता रहे। तो हिंदुओं को समझने की आवश्यकता है कि आदि शंकराचार्य भगवान शिव का अवतार हैं। और भगवान शिव को या उसके किसी अंश, अवतार को खारिज करना स्पष्ट करता है कि धर्म की आड़ में कुछ और किया जा रहा है।
आधुनिक भारत के धार्मिक स्वरूप के रचयिता आदि शंकराचार्य के अवतरित होने के विषय में पुराणशास्त्रों में वर्णित किया गया है। बेशक आदि शंकराचार्य पौराणिक नहीं कहे जा सकते मगर पुराणशास्त्रो में वर्णित तथ्यों को अपनी सत्ता प्राप्ति के उद्देश्य में व्यवधान देख विस्मृत नहीं किया जा सकता है। अब अधिकांश हिंदुओं ने धर्म शास्त्रों का अध्ययन तो किया नहीं है, इसलिए झूठ के बड़े बड़े तीर छोड़ दिए जाते हैं। अगर विद्वान जनों ने अध्ययन किया होता तो शिव के अवतार पर टिप्पणी से पूर्व दस बार सोचा होता। फिलहाल शंकराचार्य की गढ़वालियों में सर्वोच्च महत्ता तो है ही, भगवान बदरी केदार के साथ उनके जुड़ाव को गढ़वालियों ने आजतक जिंदा रखा है। साथ ही पुराणों में जो लिखा है, उसके कुछ अंश प्रस्तुत हैं, ताकि पाठक समझ सकें कि हिंदुओं के सर्वोच्च गुरु और स्वयं शिव के अवतार के शिष्यों की भाव भंगिमा भी अगर तथाकथियों को समझ नहीं आयेगी तो कुछ भी अनुचित लांछन लगना तय है, फिर आम आदमी की क्या बिसात।
सर्गे प्राथमिके प्रयाति विरतिं मार्गे स्थिते दौर्गते
स्वर्गे दुर्गमतामुपेयुषि भृशं दुर्गेऽपवर्गे सति।
वर्गे देहभृतां निसर्ग मलिने जातोपसर्गेऽखिले
सर्गे विश्वसृजस्तदीयवपुषा भर्गोऽवतीर्णो भुवि। ।
अर्थ:- ” सनातन संस्कृति के पुरोधा सनकादि महर्षियों का प्राथमिक सर्ग जब उपरति को प्राप्त हो गया , अभ्युदय तथा नि:श्रेयसप्रद वैदिक सन्मार्ग की दुर्गति होने लगी , फलस्वरुप स्वर्ग दुर्गम होने लगा ,अपवर्ग अगम हो गया , तब इस भूतल पर भगवान भर्ग ( शिव ) शंकर रूप से अवतीर्ण हुऐ। “
भगवान शिव द्वारा द्वारा कलियुग के प्रथम चरण में अपने चार शिष्यों के साथ जगदगुरु आचार्य शंकर के रूप में अवतार लेने का वर्णन पुराणशास्त्र में भी वर्णित हैं जो इस प्रकार हैं :-
कल्यब्दे द्विसहस्त्रान्ते लोकानुग्रहकाम्यया।
चतुर्भि: सह शिष्यैस्तु शंकरोऽवतरिष्यति। । ( भविष्योत्तर पुराण ३६ )
अर्थ :- ” कलि के दो सहस्त्र वर्ष व्यतीत होने के पश्चात लोक अनुग्रह की कामना से श्री सर्वेश्वर शिव अपने चार शिष्यों के साथ अवतार धारण कर अवतरित होते हैं। “
निन्दन्ति वेदविद्यांच द्विजा: कर्माणि वै कलौ।
कलौ देवो महादेव: शंकरो नीललोहित:। ।
प्रकाशते प्रतिष्ठार्थं धर्मस्य विकृताकृति:।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनापि शंकरम्। ।
कलिदोषान्विनिर्जित्य प्रयान्ति परमं पदम्। (लिंगपुराण ४०. २०-२१.१/२)
अर्थ:- ” कलि में ब्राह्मण वेदविद्या और वैदिक कर्मों की जब निन्दा करने लगते हैं ; रुद्र संज्ञक विकटरुप नीललोहित महादेव धर्म की प्रतिष्ठा के लिये अवतीर्ण होते हैं। जो ब्राह्मणादि जिस किसी उपाय से उनका आस्था सहित अनुसरण सेवन करते हैं ; वे परमगति को प्राप्त होते हैं। “
कलौ रुद्रो महादेवो लोकानामीश्वर: पर:।
न देवता भवेन्नृणां देवतानांच दैवतम्। ।
करिष्यत्यवताराणि शंकरो नीललोहित:।
श्रौतस्मार्त्तप्रतिष्ठार्थं भक्तानां हितकाम्यया। ।
उपदेक्ष्यति तज्ज्ञानं शिष्याणां ब्रह्मासंज्ञितम।
सर्ववेदान्तसार हि धर्मान वेदनदिर्शितान। ।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनोपचारत:।
विजित्य कलिजान दोषान यान्ति ते परमं पदम। । ( कूर्मपुराण १.२८.३२-३४)
अर्थ:- ” कलि में देवों के देव महादेव लोकों के परमेश्वर रुद्र शिव मनुष्यों के उद्धार के लिये उन भक्तों की हित की कामना से श्रौत-स्मार्त -प्रतिपादित धर्म की प्रतिष्ठा के लिये विविध अवतारों को ग्रहण करेंगें। वे शिष्यों को वेदप्रतिपादित सर्ववेदान्तसार ब्रह्मज्ञानरुप मोक्ष धर्मों का उपदेश करेंगें। जो ब्राह्मण जिस किसी भी प्रकार उनका सेवन करते हैं ; वे कलिप्रभव दोषों को जीतकर परमपद को प्राप्त करते हैं। “
व्याकुर्वन् व्याससूत्रार्थं श्रुतेरर्थं यथोचिवान्।
श्रुतेर्न्याय: स एवार्थ: शंकर: सवितानन:। । ( शिवपुराण-रुद्रखण्ड ७.१)
अर्थ:- “सूर्यसदृश प्रतापी श्री शिवावतार आचार्य शंकर श्री बादरायण – वेदव्यासविरचित ब्रह्मसूत्रों पर श्रुतिसम्मत युक्तियुक्त भाष्य संरचना करते हैं। “
इति अस्तु।