नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट में राज्यपालों के द्वारा प्रस्तावों को दाब कर बैठ जाने वाले मामले में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सरकार का पक्ष रखते हुए आर्टिकल 200 का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि संविधान के इस प्रावधान के अनुसार राज्यपाल की शक्ति व्यापक है और उसके दायरे में यह आता है कि वह अपने विवेक से किसी बिल पर फैसला लें।
वहीं शीर्ष अदालत ने कहा कि क्या अदालत हाथ बांधे खड़ी रहे और कहे हम कमजोर हैं? सरकार के वकील से मुख्य न्यायाधीश ने कहा कुछ तो सिस्टम बनाना होगा।
राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधानसभा से पारित बिलों को मंजूरी देने या फिर लौटाने के लिए 90 दिनों की समय सीमा तय करने पर सुप्रीम कोर्ट में दिलचस्प बहस जारी है। राष्ट्रपति की ओर से इस केस में रेफरेंस दाखिल किया गया है और अब अदालत में इस पर बहस चल रही है। गुरुवार को सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सरकार का पक्ष रखते हुए आर्टिकल 200 का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि संविधान के इस प्रावधान के अनुसार राज्यपाल की शक्ति व्यापक है और उसके दायरे में यह आता है कि वह अपने विवेक से किसी बिल पर फैसला लें। संवैधानिक और राजनीतिक शिष्टता का पालन करते हुए राज्यपाल फैसला लेते हैं और उसके लिए कोई समयसीमा तय करना गलत है
सरकार का पक्ष रखते हुए तुषार मेहता ने कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति एक संवैधानिक संस्था हैं। इसी तरह अदालत भी संवैधानिक संस्था है। सवाल है कि आखिर एक संवैधानिक संस्था अपने बराबर की दूसरी संस्था के लिए समय सीमा कैसे तय कर सकती है। इस पर जस्टिस नरसिम्हा ने कहा कि ऐसी स्थिति हो गई है कि दोनों अपनी-अपनी तरफ से अतिवादी रुख अपना रहे हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि एक ने अपना निर्णय ले लिया है।
उन्होंने कहा कि यदि कोई संवैधानिक संस्था गलती करती है तो समाधान की जरूरत है। यह अदालत संविधान का ही एक अंग है। यदि एक संवैधानिक संस्था बिना किसी वैध कारण के अपना काम नहीं कर रही है तो फिर क्या अदालत को यह कहना चाहिए कि हम शक्तिहीन हैं और हमारे हाथ बंधे हैं। हमें कुछ तो निर्णय करना होगा। वहीं सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत के अधिकार क्षेत्र पर ही सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि ऐसे मामले को कोर्ट में ले जाना और उसका फैसला करना ठीक नहीं है।
तुषार मेहता ने कहा कि मान लीजिए कि गवर्नर किसी बिल पर फैसला नहीं ले रहे हैं तो उसके राजनीतिक समाधान हैं। एक प्रतिनिधिमंडल ऐसे मामलों में पीएम या राष्ट्रपति के पास जा सकता है। इस तरह मसला हल हो सकता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि अदालत की ओर से टाइमलाइन तय की जाए। ऐसे मामले कई राज्यों में सामने आए हैं। राजनीतिक परिपक्वता से ही ऐसे मसले हल हुए हैं। इस पर जस्टिस नरसिम्हा ने कहा कि ठीक है, हम टाइमलाइन तय नहीं करेंगे। लेकिन एक प्रॉसेस तो होना चाहिए।
उत्तराखण्ड विकास पार्टी ने कहा कि राज्यपाल जनता द्वारा चयनित व्यक्ति नहीं होता है, ऐसे में एक लोकतंत्र में पहले तो चयनित व्यक्ति को भी असीमित अधिकार नहीं मिल जाते हैं, फिर जिस व्यक्ति का चयन ही प्रदेश की जनता ने नहीं किया है, उसे असीमित अधिकार देकर प्रदेश की जनता के द्वारा चुने गए लोगों के विधेयकों को असमय तक लटका देने का कोई अर्थ नहीं है। ये केवल और केवल तानाशाह देश में हो सकता है, एक सच्चे लोकतंत्र में इसका कोई अर्थ या जगह नहीं है।